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रामायण भाग लेख संख्या -१

*आपसे विनती है, दिन का थोड़ा सा समय रामायण पाठ को देंवें*

रामायण भाग लेख संख्या - 1


रामायण महाकाव्य की शुरुवात कैसे होती है, इसकी कल्पना आप हॉलीवुड फिल्मों से ,एलियन , दूसरे ग्रहों के लोगो की स्टोरी से कर सकते है ...

पहली बात तो यह है, रामायण महाकाव्य को लेकर बहुत ही अधिक भ्रांतियां समाज मे फैली हुई है .... उसका निराकरण करना जरूरी है .... रामायण के आरम्भ की ही बात लीजिए । कई लोग समझते हैं कि बाल्मीकि जी ने रामायण पहले लिखी और जैसा उन्होंने लिखा ठीक वैसी ही रामायण की घटनाएँ हुई । यदि यह सही होता तो बाल्मीकि एक प्रगाढ़ ज्योतिषी के नाम से प्रख्यात होते और शायद उनका फलज्योतिष का भी कोई अलौकिक ग्रन्थ होता जिससे वह पाठकों को ग्रहगणित की वह अनोखी कुंजी बतलाते जिससे आगामी युगों के पूरे इतिहास के इतिहास बारीकी से पहले ही आँके जा सकते हैं । 

सच तो यह है कि रामायण की घटनाएं बहुत पुरानी हो जाने पर ही बाल्मीकि जी ने उनका संशोधन कर उसका इतिहास . लिखा । इस सम्बन्ध में नारद जी से उनका संवाद हुआ वह देखें । 

वाल्मीकि जी नारद जी से पूछते है :-

 ॐ तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् । 
नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम् ॥१ ॥ 
को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् । धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ॥२ ॥ 
चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः ।
विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः॥३॥ 
आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयकः । कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे ॥४ ॥ ' 

अर्थ - तपस्वी वाल्मीकिजीने तपस्या और स्वाध्यायमें लगे हुए विद्वानोंमें श्रेष्ठ मुनिवर नारदजीसे पूछा- ॥१ ॥ 
[ मुने ! ] इस समय इस संसारमें गुणवान् , वीर्यवान् , धर्मज्ञ , उपकार माननेवाला , सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है ? ॥२ ॥ सदाचार से युक्त , समस्त प्राणियोंका हितसाधक , विद्वान , सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन ( सुन्दर ) पुरुष कौन है ? ॥३॥ मनपर अधिकार रखनेवाला , क्रोधको जीतनेवाला , कान्तिमान् और किसीकी भी निन्दा नहीं करनेवाला कौन है ? तथा संग्राममें कुपित होनेपर किससे देवता भी जिससे डरते हो, महर्षि में ऐसे ही व्यक्ति का इतिहास सुनना चाहता हूं, कृपा कर आप मुझे वह इतिहास बताएं  ।। यह रामायण के पहले ही 4 श्लोक है । जिसमे वाल्मीकि जी भविष्य के बारे में नही, बल्कि Past के बारे में नारदजी से पूछ रहे है ।।  जैसे कोई आधुनिक लेखक किसी वयोवृद्ध ज्ञानी व्यक्ति से यह मार्गदर्शन चाहेगा कि “ मुझे किसी साहसी और वीर व्यक्ति का चरित्र लिखना है तो विद्यमान ज्ञात व्यक्तियों में से मैं किसका चरित्र लिखू - शिवाजी , नेपोलियन , हिटलर या और कोई ? उसी प्रकार त्रिखंड में घूमने वाले नारदजी से भी वाल्मीकि जी ने वैसा ही मार्गदर्शन चाहा कि " सबसे पराक्रमी , यशस्वी , स्वरूपवान और आदर्श ऐसा कोन व्यक्ति हुआ जिसका मैं चरित्र लिखू " ? 

तब परग्रही नारद जी ने राजा रामचन्द्र का नाम सुझाया । अतः रामायण लिखने वाले बाल्मीकि रामचन्द्रजी के के कई वर्ष बाद हुए । यदि ऐसा नहीं होता तो विश्व में सबसे स्वरूपवान , पराक्रमी , यशस्वी आदि कौन विद्यमान है यह उन्हें स्वयं दिखाई देता , नारदजी को पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । अतः रामचन्द्र जी के समय यदि कोई बाल्मीकि हों तो वे रामायण लिखने वाले बाल्मीकि नहीं थे ।
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अच्छा एक बात और, रामायण काल की परेशानी भी हमारे जैसी है । अयोध्याजी को छोड़कर समस्त संसार दुःखी है । रामायण की शुरुवात में ही अयोध्याजी का बड़ा सुंदर वर्णन किया गया है । लेकिन दुसरी और देवतागण श्रीविष्णु को अवतार लेने के लिए प्रार्थना भी कर रहे है । इसका अर्थ साफ है ...... अयोध्याजी को छोड़कर पूरा संसार रावण के नियंत्रण में आ गया था, ओर अंत मे उसने अयोध्याजी को घेरने के लिए -- लंका को अपनी राजधानी बनाया ।। 
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राजा दशरथ के काल मे भी अयोध्यानगरी महाभव्य थी, जहां नित्य सड़को पर जल छिड़का जाता था, तथा फूल बिछाए जाते थे । राजा दशरथ ने अयोध्याजी को इंद्र की अमरावती की तरह सजाया था ।। इन नगरी के द्वार पर विशाल तोपें तथा युद्धयन्त्र( मिसाइल ) आदि रखी हुई थी, अयोध्याजी( कौशल की राजधानी) में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति ही महाधनवान था।। ( ठीक आजकी तरह ही दसरथजी के समय भी अयोध्या में जमीन मकान आदि के मूल्य बहुत अधिक होते होंगे, जिस कारण केवल धनवान लोग ही अयोध्याजी में रह पाते होंगे ।। अनेक देशों के बड़े बड़े व्यापारी अयोध्याजी में ही बसते थे ।

राजधानी अयोध्याजी में प्रत्येक स्थान स्थान पर पार्क आदि बने हुए थे। आम के बाग नगरों की सोभा बढ़ाते थे ..कुंओ में गन्ने के रस जैसा मीठा पानी था.....इस नगरी में चारो ओर आकाश एवं जमीन पर विमान ही विमान नजर आते थे।  ( हवाई जहाज एवं कार ) पूरी पृथ्वी पर अयोध्याजी के टक्कर की दूसरी नगरी नही थी । और अयोध्याजी से थोड़ी ही दूरी पर ...जो वीभत्स घटनाएं हो रही है ..... उसका बड़ा सुंदर वर्णन नरेन्द्र कोहली जी ने अपनी पुस्तक अभ्युदय में किया है ..... ________________________________________

"समाचार सुना और विश्वामित्र एकदम क्षुब्ध हो उठे । उनकी आंखें,ललाट,कपोल-क्षोभ से लाल हो गये।
क्षणभर समाचार लाने वाले शिष्य पुनर्वसु को बेध्याने धूरते रहे और सहसा उनके नेत्र झुककर पृथ्वी पर टिक गये... अस्फुट - से स्वर में उन्होंने कहा , " असह्य ! "
.......शब्द के उच्चारण के साथ उनका शरीर सक्रिय हो उठा.......
झटके से उठकर वे खड़े हो गए----"मार्ग दिखाओ,वत्स !" 

पुनर्वसु पहले ही स्तंभित था :- गुरु की प्रतिक्रिया देखकर जड़ हो चुका था ;- सहसा यह आज्ञा सुनकर जैसे जाग पड़ा और अटपटी-सी चाल चलता हुआ ,गुरु के आगे - आगे कुटिया से बाहर निकल गया ।

विश्वामित्र झपटते हुए से पुनर्वसु के पीछे चल पड़े ।
मार्ग में जहां - तहां आश्रमवासियों के त्रस्त चेहरे देखकर विश्वामित्र का उद्वेग बढ़ता गया।। आश्रमवासी गुरु को आते देख,मार्ग मे एक ओर हट , नतमस्तक खड़े हो जाते थे, और उनका इस प्रकार निरीह - कातर होना , गुरु को और अधिक पीड़ित कर जाता था.....


"ये सब लोग मेरे आश्रित हैं। ये मुझ पर विश्वास कर यहां आये हैं- इनकी व्यवस्था और रक्षा मेरा कर्तव्य है।
और मैंने इन सब लोगों को इतना असुरक्षित रख छोड़ा है ,इनकी सुरक्षा का प्रबन्ध...." 

आश्रमवासियों की भीड़ में दरार पैदा हो गयी । उस मार्ग से प्रविष्ट हो , विश्वामित्र वृत्त के केन्द्र के पास पहुंच गए । उनके उस कठोर शुष्क चेहरे पर भी दया , करुणा , पीड़ा , उद्वेग , क्षोभ , क्रोध , विवशता जैसे अनेक भाव पुंजीभूत हो , कुंडली मारकर बैठ गये थे ।

उनके पैरों के पास , भूमि पर नक्षत्र का मृत शरीर चित्त पड़ा था । इस समय यह पहचानना कठिन था कि शरीर किसका है । शरीर के विभिन्न मांसल अंगों की त्वचा फाड़कर मांस नोच लिया गया था , जैसे रजाई फाड़कर गूदड़ नोच लिया गया हो । कहीं केवल घायल त्वचा थी , कहीं त्वचा के भीतर से नंगा मांस झांक रहा था , जिस पर रक्त जमकर ठंडा और काला हो चुका था ; और कहीं - कहीं मांस इतना अधिक नोच लिया गया था कि मांस के मध्य की हड्डी की श्वेतता मांस की समाई के भीतर से भासित हो रही थी ।

शरीर की विभिन्न मांसपेशियां रस्सियों के समान जहां - तहां उलझी हुई थीं ।
चेहरा जगह - जगह से इतना नोचा - खसोटा गया था कि कोई भी अंग पहचान पाना कठिन था ।
विश्वामित्र का मन हुआ कि वे अपनी आंखें फेर लें ।

.......पर आंखें थीं कि नक्षत्र के क्षत-विक्षत चेहरे से चिपक गयी थी ;और नक्षत्र की भयविदीर्ण मृत पुतलियां कही उनके मन में जलती लोह - शलाकाओं के समान चुभ गयी थी ; 
"अब वे न अपनी आंखें फेर सकेंगे और न उन्हें मूंद  सकेंगे" 
"बहुत दिनों तक मेने अपनी आखें मूंद ही रखी थी"
अब मैं और अधिक उपेक्षा नहीं कर सकता। विश्वामित्र मन ही मन स्वयं से कह रहे होंगे ... विचारों का प्रवाह आगे बढ़ा जा रहा था ..
"कोई - न - कोई व्यवस्था मुझे करनी पड़ेगी ...फिर अचानक
क्या हुआ , वत्स ? " उन्होंने पुनर्वसु से पूछा । " 

गुरुदेव ! पूरी सूचना तो सुकंठ से ही मिल सकेगी ।वही नक्षत्र के साथ था । " 

"मुझे सुकंठ के पास ले चलो ।
"जाने से पहले विश्वामित्र आश्रमवासियों की भीड़ की ओर उन्मुख हुए,
"व्याकुल मत होओ,तपस्वीगण।राक्षसों को उचित दंड देने की व्यवस्था मैं शीघ्र करूंगा।
नक्षत्र के शव का उचित प्रबध कर मुझे सूचना दो।" 

"वे पुनर्वसु के पीछे चले जा रहे थे....जब कभी भी मैं किसी नये प्रयोग के लिए यज्ञ आरभ करता हूं... ये राक्षस मेरे आश्रम के साथ इसी प्रकार रक्त और मांस का खेल खेलते हैं । रक्त - मांस की इस वर्षा में कोई भी यज्ञ कैसे सम्पन्न हो सकता है??  

पुनर्वसु चिकित्सा - कुटीर के मार्ग पर चल पड़ा था । विश्वामित्र उमके पीछे पीछे मुड़ गये  विश्वामित्र फिर से चलते चलते ही चिंतन में डूबे हुए थे....

"क्या अपनी शांति के लिए , अपने आश्रमवासियों की रक्षा के लिए , राक्षसों से समझौता कर लूं ?
क्या मैं उनकी बात मान लूं ?क्या अपना शस्त्र - ज्ञान उन्हें समर्पित कर मैं एक और शुक्राचार्य बन जाऊं ?
भृगुओं और भरतों का समस्त शस्त्र , औषध तथा अश्वपालन सम्बन्धी ज्ञान देकर इन्हे और भी शक्तिशाली बना दू ? क्या मैं भी उनमें से ही एक हो जाऊं ? राक्षसी वृत्तियों को निर्वाध पनपने दूं ? अपने आश्रम से आर्य - संस्कृति को निष्कासित कर , इसे राक्षस संस्कृति का गढ़ बन जाने दूं ?" 

पुनर्वसु चिकित्सा - कुटीर के द्वार पर जाकर रुक गया । उसने एक ओर हटकर गुरु को मार्ग दे दिया ।
विश्वामित्र भीतर प्रविष्ट हुए । चिकित्साचार्य ने अपनी शिष्य मंडली को एक ओर कर , आश्रम के कुलपति के लिए मार्ग बना दिया ।
विश्वामित्र सुकंठ की शैया से लगकर खड़े हो गये । सुकंठ का चेहरा और शरीर तरह - तरह की पट्टियों से बंधा हुआ था , किन्तु उसकी बांबुली हुई थी और वह पूरी तरह चैतन्य था , गुरु को देखकर उसने शैया से उठने का प्रयत्न किया । 
विश्वामित्र ने उसके कंधे पर अपना हाथ रख तनिक - से दबाव के साथ उसे लेटे रहने का संकेत किया ।

"मुझे बताओ , वत्स ! यह सब कैसे हुआ ?
" सुकंठ की भयभीत आंखों में एक त्रास तैर गया और उसका चेहरा अपना स्वाभाविक रंग छोड़ , कुछ पीला हो गया ।जैसे वह चिकित्सालय से उठाकर फिर से उन्ही त्रासद क्षणों में पटक दिया गया था।विश्वामित्र उसकी ओर कुछ और अधिक झुक गए । 

उनका स्वर बहुत ही कोमल हो आया था,
"बताने मे विशेष कष्ट हो तो अभी रहने दो,वत्स !
"सुकंठ के चेहरे पर क्षणभर के लिए एक पीड़ित मुसकान झलकी ,

"नहीं , गुरुदेव !
जो देखा है , उससे अधिक कष्ट बताने में नही है । " 

उसने एक निःश्वास छोडा
"मैं तथा नक्षत्र उधर से जा रहे थे,तो हमने वहां दो राक्षसों को बैठे हुए देखा ।
वे लोग डील-डौल मे हमसे बहुत बड़े और शारीरिक शक्ति मे हमसे बहुत अधिक थे।

उनके वस्त्र अत्यन्त्र भड़कीले , मूल्यवान एव भद्दे थे । शरीर पर विभिन्न प्रकार के मणि - माणिक्य एव स्वर्ण - आभूषण इस विपुलता से पहने हुए थे कि वे आभूषण न लगकर कबाड़ का आभास दे रहे थे । आश्रम के भीतर हमे उनका यह भद्दा व्यक्तित्व अत्यन्त आपत्तिजनक लग रहा था ; 

"पर शायद हम उन्हे कुछ भी न कहते ; क्योंकि मेरा ही नहीं , अनेक आश्रमवासियो का यह अनुभव है कि इन राक्षसो से कोई अच्छी बात भी कही जाए , या उनके सार्वजनिक दूषित व्यवहार के लिए उन्हें टोका जाए , तो वे लोग तनिक भी लज्जित नहीं होते , उल्टे झगड़ा करने लगते हैं । उनके पास शारीरिक शक्ति है , शस्त्र - बल है , धन - बल है ; और फिर कोई शामन उनका विरोध नहीं करता । इन राक्षसों से झगड़ा कर हम कभी भी जीत नही पाते । इसलिए उनके अनुचित व्यवहार को देखते भी आश्रमवासी सामान्यतः अांखें मूंद लेते हैं ..."  

" विश्वामित्र के मन मे कही कसक उठी , ' क्या यह बालक मुझे उपालंभ दे रहा है ? क्या मैं इन राक्षसों की ओर से आखें मूदे हुए हूं ... ? ' 

सुकंठ कह रहा था , " हम शायद उन्हें कुछ भी न कहते । पर तभी उधर से आश्रमवासिनी आर्या अनुगता गुजरी । और तब हमें ज्ञात हुआ कि वे दोनों राक्षस मदिरा पीकर धुत्त थे ।
उन्होंने आर्या अनुगता को पकड़ लिया और अनेक अशिष्ट बातें कहीं ।तब हमारे लिए उनकी उपेक्षा कर पाना संभव नहीं रहा ।सोच विचार का समय नहीं था , ओर सत्य तो यह है कि हम लोग अपनी इच्छा से सोच - विचारकर,अपनी वीरता दिखाने भी नहीं गये थे ।वह तो क्षण की मांग थी।
यदि हम सोचते रह जाते तो वे राक्षम या तो आर्या अनुगता को मार डालते,या फिर उन्हें उठाकर ले जाते । हमने उन्हें ललकारा । उन दोनों ने खड्ग निकाल लिए ।। हम निःशस्त्र थे , परिणाम आपके सामने है ... "
सुकंठ की वाणी रुंध गयी ,
"मैंने संज्ञा - शून्य होने से पूर्व उन्हें नक्षत्र के जीवित शरीर को अपने नखों एवं दांतों से उसी प्रकार नोचते हुए देखा था,जैसे गिद्ध किसी लोष को नोचते हैं ।
वे लोग शायद मेरे साथ भी वही व्यवहार करते , किन्तु उससे पूर्व ही आश्रमवासियों की भीड़ एकत्रित हो गयी ... " सुकंठ ने अपनी आंखें भींच ली और उसके गालों पर से बहते हुए अश्रु कानों की ओर मुड़ गए ।

"तुमने बहुत कष्ट सहा है,वत्स!" विश्वामित्र बोले,
" अब शांत होओ ।
लगता है कि यह मेरी ही उद्यमहीनता का फल है।।
मैं दूसरों को दोष देता ,शांत बैठा रहा ; पर अब न कुछ - कुछ करना ही होगा , नहीं तो यह सिद्धार्थाश्रम श्मशान बन जाएगा ।
" उन्होंने सुकंठ के सिर पर हाथ फेरा ।उन्हें शब्द नहीं सूझ रहे थे - कैसे वे अपने मन की पीड़ा सुकंठ तक पहुंचाएं ।
क्या उसके केशों पर फिरता उनका यह हाथ शब्दों से कुछ अधिक कह पायेगा ? ... वे द्वार की ओर बढ़ चले । चिकित्सा - कुटीर से बाहर निकलते हुए विश्वामित्र के चेहरे पर निर्णय की दृढ़ता थी ।

यह निर्णय कितनी बार उभर - उभरकर उनके मस्तिष्क की ऊपरी तहों पर आया था , पर उन्होंने हर बार उसे स्थगित कर दिया था ।
किंतु अब और शिथिलता नहीं दिखानी होगी ।
चेहरे के साथ उनके पगो में भी दृढ़ता आ गयी थी । उनके पग निश्चित आयास के साथ अपनी कुटिया की ओर बढ़ रहे थे । उनमें द्वंद्व नहीं था , अनिर्णय नही था , गंतव्यहीनता नही थी । 
पर अपनी कुटिया में आकर , अपने आसन पर बैठते ही उनके भीतर का चिंतन जागरूक हो उठा । कर्मण्य विश्वामित्र फिर कही सो गया और चिंतक विश्वामित्र चेतावनी देने लगा-

"ठीक से सोच ले,विश्वामित्र ! यह न हो कि गलत निर्णय के कारण अपमानित होना पड़े । सोच , सोच , अच्छी तरह सोच ... " विश्वामित्र के मन में कर्म का आवेग , फेन के समान बैठ गया । शीघ्रता विश्वामित्र के लिए नहीं है । वे जो कुछ करेंगे , सोच - समझकर करेंगे । एक बार कार्य आरंभ कर पीछे नहीं हटना है । अत : काम ऊपर से आरंभ करने के स्थान पर नीचे से ही आरंभ करना चाहिए ।

*"पुनर्वसु" ..विश्वामित्र ने आवाज दी* ..
गुरुदेव ! " "
*पुत्र...मुनि आजानुबाहु को बुला लाओ..कहना आवश्यक कार्य है।*
"पुनर्वसु  चला गया और विश्वामित्र अत्यंत उद्विग्नता से मुनि आजानुबाहु की प्रतीक्षा करते रहे ... विश्वामित्र का मन कभी-कभी ही ऐसा उद्विग्न हुआ था ... मुनि ने आने में अधिक देर नहीं लगाई ।
" आर्य कुलपतिः" " मुनि आजानुबाहु  विश्वामित्र को आवाज देते ही कक्ष में प्रवेश किए !

"विश्वामित्र ने कोमल आकृति वाले उस अधेड़ तपस्वी की ओर देखा ,"आपके व्यवस्था - कौशल , आपके परिश्रमी स्वभाव तथा आपके मधुर व्यवहार को दृष्टि में रखते हुए एक अत्यंत गंभीर कार्य आपको सौंप रहा हूँ।।
""कुलपति , आज्ञा करें ।" मुनि ने सिर को तनिक झुकाते हुए कहा ।
            "जो कुछ आश्रम में घटित हुआ , उसे आपने देखा है।आश्रम के तपस्वियों के लिए राक्षसों से लड़ना संभव नहीं है।न तो उनके पास शस्त्र - बल है और न मनोबल। इसलिए हमें सहायता की आवश्यकता है..
आप कुछ शिष्यों को साथ लेकर , आश्रम से लगते हुए , सभी ग्रामों में घूम जाएँ - ग्राम चाहे आर्यो के हों,निषादों के हों,शबरों के हों अथवा भीलों के हों । सभी ग्राम - प्रमुखों को इस घटना की सूचना दें । उनसे कहें कि वे लोग आश्रमवासियों की सुरक्षा का प्रबंध करें ओर विश्वामित्र का स्वर कुछ आवेशमय हो उठा 
"और यदि वे लोग कुछ आनाकानी करें तो किसी राज्य व्यवस्था का अवलंब लेना पड़ेगा ।
मलद और करूश के राजवंशों का नाश हो जाने के कारण यह क्षेत्र राजविहीन हो गया है ।
किंतु मुनिवर ! यदि आवश्यकता पड़े , तो कुछ आगे बढ़ सम्राट् दशरथ की सीमा - चौकी पर नियुक्त राज - प्रतिनिधि सेनानायक #बहुलाश्व के पास जाकर निवेदन करें । उसे सारी स्थिति समझाएँ और उससे कहें कि वह अपराधियों को पकड़कर दण्डित करे । यह ठीक है कि यह क्षेत्र उसकी सीमा में नहीं है , किंतु सीमांत की भूमि शत्रु के लिए इस प्रकार असुरक्षित नहीं छोड़ देनी चाहिए । सीमांत पर होने वाली ऐसी घटनाओं का दमन उसका कर्तव्य है , नहीं तो ये ही घटनाएं उसकी सीमा के भीतर होने लगेंगी ।
"मुनि ने एक बार पूरी दृष्टि से विश्वामित्र को देखा और सिर झुका दिया , " आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन होगा । " प्रणाम कर वे जाने के लिए मुड़ गए ।
आजानुबाहु चले गए , किंतु विश्वामित्र उनकी आँखों का भाव नहीं भूल पाए । सदा यही होता है - हर बार यही होता है । आजानुबाहु की आँखें उन्हें उपालंभ देती हैं - 
जैसे कहती हो , 

'विश्वामित्र ! तुम बातों के ही धनी हो । कर्म तुम्हारे वश का नहीं है।"

ऋषि विश्वामित्र का अत्यंत संयमी मन दिन - भर किसी काम में नहीं लगा........

उनकी आँखों के सम्मुख नक्षत्र और सुकंठ के चेहरे फिरने लगते । और नक्षत्र का वह विकृत रूप - जगह - जगह से उधड़ा हुआ मांस , टूटी हुई मांसपेशियाँ , लाल मांस में से झाँकती हुई सफेद हड़ियाँ - क्या करें विश्वामित्र कैसे उन चेहरों से पीछा छुड़ाएँ ? फिर उनका ध्यान मुनि आजानुबाहु की ओर चला गया । उन्हें भेजा है , ग्राम - प्रमुखों के पास और सेनानायक बहुलाश्व के पास ... । देखें , क्या उत्तर लाने हैं ।
क्या उत्तर हो सकता है ? मुनि आजानुबाहु सदा अपना कार्य पूरा करके आते हैं और फिर उनकी आँखों में यही भाव होता है - मैं तो कर आया , विश्वामित्र ! देखना है , तुम क्या करते हो ।

ओह ! उन आँखों का अविश्वास ... ... पर विश्वामित्र स्वयं अपने ऊपर चकित थे । क्या हो गया है उन्हें ! उन्होंने अपनी युवावस्था में अनेक युद्ध लड़े हैं , सेनाओं का संचालन किया है । फिर राक्षसों के आक्रमण की भी यह कोई पहली घटना नहीं है ... इतने विचलित तो वे कभी नहीं हुए । ये अत्यंत संयम और आत्म - नियंत्रण से अपना दैनिक कार्य करते रहे हैं , किंतु आज ... क्या उनके सहने की भी सीमा आ गई है ? ..
संध्या ढलने को थी , अंधकार होने में थोड़ा ही समय शेष था , जब मुनि आजानुबाहु ने उपस्थित हो , झुककर कुलपत्ति को प्रणाम किया ।
"आसन ग्रहण करें , मुनिवर ! "
मुनि अत्यंत उदासीन भाव से बैठ गए ।
उनके मुख पर उल्लास की कोई भी रेखा नहीं थी ।
शरीर के अंग - संचालन में चपलता सर्वथा अनुपस्थित थी ।विश्वामित्र की आँखें मुनि का निरीक्षण कर रही थीं- " क्या समाचार लाए हैं , मुनि ? 

"“आपकी आज्ञा के अनुसार मैं सिद्धाश्रम के साथ लगते हुए दसों ग्रामों के मुखियों के पास हो आया हूँ । " " 

आपने उन्हें इस दुर्घटना की सूचना दी ?
"" हाँ , आर्य कुलपति !
"" उन्होंने क्या उत्तर दिया ?
"" प्रभु ! वे उत्तर नहीं देते ।
"मुनि बहुत उदास थे , “ मौन होकर सब कुछ सुन लेते हैं और दीर्घ निःश्वास छोड़कर शून्य में घूरने लगते हैं । उन्हें जब यह ज्ञात होता है कि यह राक्षसों का कृत्य है ; और राक्षस ताड़का के सैनिक शिविर से संबद्ध हैं तो ये उनके विरुद्ध कुछ करने के स्थान पर उल्टे भयभीत हो जाते हैं । " मुनि का स्वर चिंतित था । " 

आर्य कुलपति !" मुनि आजानुबाहु बोले ,
 “ आश्रम के बाहर तो स्थिति यह है कि सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में राक्षस तथा उनके अनुयायी व्यक्ति का धन छीन लेते हैं , उसे पीट देते हैं , उसकी हत्या कर देते हैं । भीड़भाड़ वाले हाट - बाजार में महिलाओं को परेशान किया जाता है , उन्हें अपमानित किया जाता है , उनका हरण किया जाता है और जनसमुदाय खड़ा देखता रहता है । जनसमुदाय अब मानो नैतिक - सामाजिक भावनाओं से शून्य , हतवीर्य तथा कायर , जड़ वस्तु है । जिसके सिर पर पड़ती है , वह स्वयं भुगत लेता है - शेष प्रत्येक व्यक्ति इन घटनाओं से उदासीन , स्वयं को बचाता - सा निकल जाता है । इससे अधिक शोचनीय स्थिति और क्या होगी , आर्य कुलपति !

"जाने क्यों विश्वामित्र को मुनि का प्रत्येक वाक्य अपने लिए ही उच्चरित होता लगता था । क्या आजानुबाहु जान - बूझकर ऐसे वाक्यों का प्रयोग कर रहे हैं , या विश्वामित्र का अपना ही मन उन्हें धिक्कार रहा है ... पर धिक्कार से क्या होगा , अब कर्म का समय है । विश्वामित्र अपने चिंतन को नियंत्रित करते हुए बोले ,

 " न्याय - पक्ष दुर्बल और भीरु तथा अन्याय - पक्ष दुस्साहसी एवं शक्तिशाली हो गया है । यह स्थिति अत्यंत अहितकर है ।... आप शासन - प्रतिनिधि सेनानायक बहुलाश्व के पास भी गए थे ?
 ""आर्य ! गया था । " मुनि का स्वर और अधिक शुष्क और उदासीन हो गया । 
"उससे क्या बातचीत हुई । उसने अपराधियों को बंदी करने के लिए सैनिक भेजने की बात की ??
"उससे बातचीत तो बहुत हुई ।" मुनि ने उत्तर दिया । उनके स्वर में फिर वही भाव था । विश्वामित्र साफ - साफ सुन पा रहे थे । आजानुबाहु ने कुलपति की आज्ञा का पालन अवश्य किया था , किंतु उन्हें इन कार्यों की सार्थकता पर विश्वास नहीं था । " किंतु उसने अपने सैनिकों को कोई आदेश नहीं दिया । कदाचित् वह कोई आदेश देगा भी नहीं ।
"" क्यों ? 
"विश्वामित्र की भृकुटी वक्र हो उठी ! 
"सेनानायक बहुलाश्व को आज बहुत से उपहार प्राप्त हुए हैं , आर्य कुलपति ! उसे एक बहुमूल्य रथ मिला है । उसकी पत्नी को शुद्ध स्वर्ण के आभूषण मिले हैं । मदिरा का एक दीर्घाकार भाँड मिला है , और कहते हैं कि एक अत्यंत सुंदरी दासी भी दिए जाने का वचन है ।
"" ये उपहार किसने दिए हैं , मुनिवर ? 
"" राक्षस शिविर ने , आर्य !
राक्षस बिना युद्ध किए भी विपक्षी सैनिकों को पूर्णतः पराजित कर देते हैं । "
विश्वामित्र के मन में सीमातीत क्षोभ हिल्लोलित हो उठा । शांतिपूर्वक बैठे रहना असंभव हो गया ।
वे उठ खड़े हुए और अत्यंत व्याकुलता की स्थिति में , अपनी कुटिया में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलने लगे । मुनि आजानुबाहु ने उन्हें ऐसी क्षुब्धावस्था शासन , शासन - प्रतिनिधि , सेना - सब के होते हुए भी , जो कोई चाहे , मनमाना अपराध में कभी नहीं देखा था ... विश्वामित्र जैसे वाचिक चिंतन करते हुए बोले ,

“इसका अर्थ यह हुआ कि कौई भी व्यक्ति अपराध कर ले और उसके प्रतिकार के लिए शासन - प्रतिनिधि के पास उपहार भेज दे - उसके अपराध का परिमार्जन हो जाएगा ।यह कैसा मानव - समाज है ?
हम किन परिस्थितियों में जी रहे हैं ! यह कैसा शासन है ? यह तो सभ्यता - संस्कृति से दूर हिंस्र पशुओं से भरे किसी गहन विपिन में जीना है ... " " 
इतना ही नहीं , आर्य कुलपति !
''मुनि के स्वर में व्यंग्य से अधिक पीड़ा थी , .

"मैंने तो सुना है कि अनेक बार ये राक्षस तथा उनके मित्र शासन - प्रतिनिधि को पहले से ही सूचित कर देते हैं कि वे लोग किसी विशिष्ट समय पर , विशिष्ट स्थान पर , कोई अत्याचार करने जा रहे हैं - शासन - प्रतिनिधि को चाहिए कि वह उस समय अपने सैनिकों को उधर जाने से रोक ले ; और शासन - प्रतिनिधि वही करता है . इस कृपा के लिए शासन - प्रतिनिधि को पूर्ण पुरस्कार दिया जाता " 
असहनीय !
पूर्णतः अमानवीय !
राक्षसी ... राक्षसी ...
"विश्वामित्र विक्षिप्त से इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे । 
"आपने सेनानायक को बताया था कि आप सिद्धाश्रम से आए हैं और आपको मैंने भेजा है ?"सहसा विश्वामित्र ने रुककर पूछा ।
 "हां ,आर्य ! " मुनि ने कहा । 
“उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ ?
"मुनि के मुखमण्डल पर फिर व्यंग्य आ बैठा ,
"आप सब कुछ जानते हुए भी पुछते हैं , ऋषिवर ! राक्षसों ने कभी भी आश्रमों तथा ऋषियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा । उनकी ही देखा - देखी अनेक आर्यों ने भी ऋषियों को उपहास की , तुच्छ एवं नगण्य वस्तु मान लिया है ।सेनानायक बहुलाश्व ने मुझे ऐसा ही सम्मान दिया ।... हम उनके लिए क्या है । निरीह , कोमल जीव - जो उन्हें डंक नहीं मार सकते ; और वे जब चाहें , हमें मसल सकते हैं ।

"विश्वामित्र का ध्यान मुनि के व्यंग्यात्मक स्वर की ओर नहीं गया । उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था - लगता था , वे किसी भी क्षण फट पड़गे ..
उन्हाने अपनी असीम शक्तियों पर किसी प्रकार नियंत्रित किया ।
बोले " अच्छा , मुनिवर ! आप विश्राम करें , में कोई - न - कोई व्यवस्था करूंगा । यह क्रम बहुत दिन नहीं चलेगा , अगर कौई और मार्ग नही निकलेगा, तो क्षत्रियः से ब्राह्मण बना विश्वामित्र स्वयं ही पुनः शस्त्र धारण करेगा ।।
मुनि आजानुबाहु उठे नहीं , वैसे ही बैठे - बैठे तनिक - सा सिर झुकाकर बोले , “ यदि अनुमति हो तो एक और सूचना देना चाहता हूँ । घटना तनिक विस्तार से बताने की है । " विश्वामित्र का क्रोध बार - बार उन्हें खींचकर किसी और लोक में ले जाता था....

और वे बार - बार स्वयं को घसीटकर सिद्धाश्रम में ला रहे थे । कैसा समय है कि जिन विश्वामित्र के सम्मुख आर्य सम्राट् सिर झुकाते थे - आज एक तुच्छ सेनानायक उनकी उपेक्षा कर रहा था ; केवल इसलिए कि उन्होंने अपनी इच्छा से राजसिक सत्ता , सैन्य बल , अस्त्र - शस्त्र तथा भोग की भौतिक सामग्रियों का त्याग कर समाज के कल्याण के लिए तपस्या का यह कठिन मार्ग स्वीकार किया था । जिन गुणों के लिए उनकी पूजा होनी चाहिए थी , उन्हें उनका दोष मान लिया गया है
 ... मुनि की बात सुनकर बोले , “ कहिए , मुनिवर ! मैं सुन रहा हूँ । " " आर्य कुलपति ! " आजानुबाहु बोले , " सेनानायक बहुलाश्व के सैनिक शिविर के समीप , सम्राट् दशरथ के राज्य की सीमा के भीतर ही एक ग्राम है । ग्राम के निवासी जाति के निषाद हैं । पुरुष अधिकांशतः नौकाएँ चलाते हैं और स्त्रियाँ मछलियाँ पकड़ती हैं ...
"शायद मैं उस ग्राम से परिचित हूँ ।"विश्वामित्र बोले । " 

उसी ग्राम में गहन नामक एक व्यक्ति रहता है। कुछ दिन पूर्व आर्य युवकों का एक दल गहन की कुटिया पर गया था । युवकों ने मदिरा इतनी अधिक पी रखी थी कि उन्हें उचित - अनुचित का बोध नहीं था। उन्होंने सीधे स्वयं गहन के पास जाकर मांग की कि वह अपने परिवार की स्त्रियाँ उनकी सेवा में भेज दे।
ऐसी अशिष्ट माँग सुनकर गहन क्रुद्ध हो उठा । उसके आदान पर ग्राम के अनेक युवक वहाँ एकत्रित हो गए । किंतु आर्य युवक अपनी मांग से टले नहीं । उनका तर्क था कि वे लोग घनी - मानी सवर्ण आर्य हैं और कंगाल गहन के परिवार की स्त्रियाँ गरीब परिवार की तुच्छ स्त्रियाँ हैं ।
गरीब एवं शक्तिहीन लोगो की स्त्रियों की भी कोई मर्यादा होती है क्या?
ये होती ही किसलिए हैं ?
सवर्ण आर्यो के भोग के लिए ही तो !
"वे लोग न केवल अपनी दुष्टता पर लज्जित नहीं हुए , वरन् अपनी हठ मनवाने के लिए झगड़ा भी करने लगे । उस झगड़े में उन्हें कुछ चोटें आई । अंततः वे लोग यह धमकी देते हुए चले गए कि वे गरीब को उसकी उच्छृखलता के लिए ऐसा दण्ड दिलाएंगे , जो आज तक न किसी ने देखा होगा , न सुना होगा ।

"" फिर ?
"विश्वामित्र तन्मय होकर सुन रहे थे ।
"गहन कल से अस्वस्थ चल रहा था ।
आज जब सारा ग्राम अपने काम से नदी पर चल गया , गहन अपनी कुटिया में ही रह गया।
गहन की देख - भाल के लिए उसकी पत्नी भी रह गई । अपनी सास की सहायता करने के विचार से गहन की दोनों पुत्रवधुएँ भी घर पर ही रहीं । गहन की दुहिता अकेली कहाँ जाती , अतः वह भी नदी पर नहीं गई ... " " फिर ?
"विश्वामित्र जैसे श्वास रोके हुए , सब कुछ सुन रहे थे । 
“अवसर देखकर आर्य युवकों का वही दल ग्राम में घुस आया ।

"मुनि आजानुबाहु ने बताया “अकेला अस्वस्थ गहन क्या करता ।
उन्होंने उसे पकड़कर एक खंभे के साथ बाँध दिया । उसकी वृद्धा पत्नी , युवा पुत्रवधुओं तथा बाला दुहिता को पकड़कर , गहन के सम्मुख ही नग्न कर दिया ।
उन्होंने वृद्ध गहन की आँखों के सम्मुख बारी - बारी उन स्त्रियों का शील-भंग किया । फिर उन्होंने जीवित गहन को आग लगा दी और जीवित जलते हुए गहन को उस चिता में लौह शलाकाएँ गर्म कर - करके उन स्त्रियों के गुप्तांगों पर उनकी गरीबी चिन्हित  की ... 

"" असहनीय ! " 
विश्वामित्र ने पीड़ा से कराहते हुए कहा ।
उन्होंने दोनों हथेलियों से अपने कान बंद कर,आँखें मींच ली थीं।
वृद्ध ऋषि की मानसिक पीड़ा देखकर मुनि आजानुबाहु चुप हो गए
"ऋषि विश्वामित्र से उच्च आर्यो की कौन-सी जाति है??" भरतों में सर्वश्रेष्ठ विश्वामित्र।वे विश्वामित्र उन निषाद स्त्रियों के साथ घटी घटना को सुन तक नहीं सकते और झूठी कुलीनता का दंभ भरने वाले वे आर्य युवक ऐसे कृत्यों को अपना धर्म मानते है ???

"आजानुबाहु को लगा,
उनके मन में बैठा विश्वामित्र -द्रोही भाव विगलित हो उठा है और अब उनके मन में श्रद्धा ही है।
"इस वृद्ध ऋषि के लिए दूसरा भाव हो ही क्या सकता है । स्फटिक जैसा उज्ज्वल मन होते हुए भी,परिस्थितियों के सम्मुख कैसे असहाय हो गए हैं विश्वामित्र ! 
मुनि चुपचाप कुलपति की आकृति पर चिह्नित पीड़ा को आँखों से पीते रहे । कुछ नहीं बोले । और बोलकर ऋषि की पीड़ा में वृद्धि करना उचित होगा क्या ? ... 
"इस घटना की सूचना सेनानायक बहुलाश्व को है ? "
अंत में विश्वामित्र ने ही पूछा । "
शासन - तंत्र के विभिन्न प्रतिनिधियों ने इस घटना की सूचना पाकर जब कुछ नहीं किया , तो गहन के पुत्र बहुलाश्व के पास भी गए थे ।
बहुलाश्व ने सारी घटना सुनकर कहा कि वह शोध करके देखेगा कि इस घटना में तथ्य कितना है । 

"इतनी बर्बरता हो रही है - अमानवीय , पैशाचिक , राक्षसी ।और शासन का प्रतिनिधि कहता है , वह शोध करेगा??" 

विश्वामित्र असाधारण तेजपुंज हो रहे थे 
"उन आर्य युवकों की जीवित त्वचा खींच ली जानी चाहिए ।मैं घोषणा करता हूँ कि ये युवक आर्य नहीं हैं । वे लोग राक्षस हैं - पूर्ण राक्षस । रावण के वंशज । 
"ऋषिवर । मैं उन्हें अपने साथ सिद्धाश्रम में लेता आया हूँ । वे आश्रम के बाहर कहीं भी सुरक्षित नही " आर्य कुलपति ! ' ' मुनि बोले , 
"गहन के पुत्र उन स्त्रियों के साथ मुझे मिले... वे स्वयं को सुरक्षित नहीं पाते ।

"" उन्हें बुलाओ ! " विश्वामित्र उतावली से बोले ।
मुनि बाहर गए और क्षणभर में ही लौट आए । उनके साथ एक भीड़ धी - चुपचाप , मौन । किंतु उनकी आकृतियों पर आक्रोश और विरोध चिपक - सा गया  था । उन्होंने कंधों पर चारपाइयाँ उठा रखी थीं । चारपाइयाँ भूमि पर रखकर ये लोग हट गए । केवल दो पुरुष उन चारपाइयों के पास खड़े रह गए । कदाचित् ये दोनों ही गहन के पुत्र थे । 
विश्वामित्र ने देखा - अत्यंत पीड़ित चेहरे । त्रस्त एवं आतंकित ।
चारपाइयों पर एक वृद्धा स्त्री थी , कदाचित् यही गहन की पत्नी थी।
दो युवतियाँ - असह्य पीड़ा में कराहती हुई ; और एक निपट बालिका , जिसने अपनी पीड़ा को सहने के उपक्रम में अपने ही दांतो से अपने होंठ काट लिए थे ।
विश्वामित्र का दृढ़ व्यक्तित्व सर्वथा हिल गया ।उनके जी में आया , वे रो पढ़ें - उन राक्षसों को इस बालिका पर भी दया न आई .........

"और सहसा विश्वामित्र के भीतर घृणा पूँजीभूत होने लगी --इस घृणा को पोषित करना होगा - तभी राक्षसों का संहार होगा।"
"मुनिवर , इन देवियों को तुरंत चिकित्सा - कुटीर में पहुँचाकर इनका उपचार करवाएँ,।
"उन्होंने आदेश दिया “ गहन के पुत्रो ! तुम दोनों यहीं ठहर जाओ ।"
आदेश का पालन हुआ ।

भीड़ उन चारपाइयों को लेकर चली गई ,केवल गहन के दोनों पुत्र पीछे रह गए ।
"बैठ जाओ , पुत्रो !"ऋषि ने कहा ।
वे दोनों बैठे नहीं ।दण्ड के समान ऋषि के चरणों में टूटकर गिरे - जैसे अब तक का रोका हुआ बाँध बह गया हो।वे लोग देर तक उनके चरणों पर पड़े हुए रोते रहे । विश्वामित्र की आँखों से भी निःशब्द अश्रु झरते रहे ।

अंततः ऋषि बोले "उठो,वत्स !धैर्य धारण करो। मुझे बताओ कि जब तुम्हारी सहायता को कोई नहीं आया , तो तुम्हारे ग्राम - बंधुओं ने उन आर्य युवकों से प्रतिशोध क्यों नहीं किया ? 

"ऋषिवर ! वह आत्महत्या होती ।हमारा सारा ग्राम जला दिया जाता ।सारे पुरुषों की हत्या कर दी जाती । ग्राम की प्रत्येक स्त्री की वही स्थिति होती , जो आज हमारे परिवार की स्त्रियों की हुई है ।उन आर्य युवकों के त्रास से किसी आर्य वैद्य ने इनका उपचार भी नहीं किया ।"गहन का ज्येष्ठ पुत्र गगन बोला ।"ऐसे शक्तिशाली लोग हैं वे ! 

"ऋषि पीड़ा के साथ - साथ आश्चर्य से भर उठे , " वत्स , कौन लोग हैं वे?"गगन सिर झुकाए, मौन बैठा रहा ।
"तुम उन लोगों से परिचित हो?"
गगन ने स्वीकृति में सिर हिला दिया ।
"तो बताते क्यों नहीं??
गगन की आँखों में मृत्यु की छाया प्रत्यक्ष हो गई.....
"उन्हें पता चलेगा कि मैंने आपको बताया है तो वे लोग मेरी भी हत्या कर देंगे । " 

"तेज - प्रज्वलित स्वर में विश्वामित्र बोले:-" मृत्यु के भय से कायर मत बनो , वत्स!जो कुछ घटित हो चुका है , क्या वह किसी मृत्यु से कम है ?
मैं तुम्हें सिद्धाश्रम में शरण देता हूँ ।किसी भी आश्रमवासी की जितनी रक्षा होती है , वैसी ही रक्षा तुम्हारी भी होगी ....बोलो...
वे कौन हैं ?"" 
बाध्य न करें,ऋषिवर !
" गगन का मुख दीनयाचना में डूब गया ।
" बोलो ! 
"ऋषि कड़ककर बोले ,
"उन दलितों का उद्धार कभी नहीं होता , जो अत्याचार का विरोध नहीं करते ।" गगन ने अत्यंत भयभीत होकर ऋषि को देखा ।

"वहाँ मानो विश्वामित्र नहीं थे,एक तेज था,प्रकाश था , सत्य था ... उस तेज में जैसे वह बँध गया ।उसका भय , भीतर का प्रतिरोध उस प्रकाश में विलीन हो गया । बोला " उनका नेता सेनानायक बहुलाश्व का पुत्र देवप्रिय है ।

"पर देवप्रिय नाम लेते ही वह सचेत हो उठा । वह अपने - आप में लौट आया था । रोने के लिए उसने अपने होंठ फैला दिए । विश्वामित्र का मस्तिष्क एकदम झन्नाका खा गया । स्वयं शासन - प्रतिनिधि का ही पुत्र राक्षसी कृत्य करेगा लो न्याय कौन करेगा ? न्याय की मांग करने कोई किसके पास जाए ! ... और यदि पिता उत्कोच लेकर अत्याचारों की ओर से आँखें मूंद लेता है तो पुत्र इतना भी नहीं करेगा क्या ? " विश्वामित्र की आँखें जैसे आकाश को बेच देने के लिए ऊपर की ओर उठीं । उन आँखों में दृढ़ता थी , जंगल वन की सी । 
बोले ......
"जब शासक राक्षस हो जाए तो न्याय का कर्तव्य ऋषि का होता है ।...

विश्वामित्र सोचते जा रहे थे । विचारों का प्रवाह थम नहीं रहा था । कोई एक बात तो थी नही । इतने कारण थे इस स्थिति के पीछे ।
‘आर्य राजा भोगी और विलासी होते जा रहे थे । अधिक से अधिक पत्निया ,अधिक से अधिक सुख –भोग ।वे कोमल हो गये थे।थोड़ी–थोड़ी सेनाएं लेकर अपनी राजधानियों में पड़े थे।
दशरथ चक्रवर्ती सम्राट कहलाते है , पर सागर को पार करना तो दूर , कभी किष्किंधा तक भी नही गये ।
जल-सेना से विहीन इन सब राजाओं की पहुंच से बाहर , लंका मे सुरक्षित बैठा रावण ,जहां–तहां उत्पात मचा रहा है 
‘आर्यावर्त के राजाओं में न्याय नही रहा ,साहस नही रहा , राजनीतिक सूझ – बूझ नही रही , महत्त्वाकांक्षा नही रही,सजगता और सचेतता नही रही,नगरो से निरन्तर खेदजनक समाचार आ रहे हैं ।शासन–तंत्र ढीला हो गया है।
भीतर और बाहर से शत्रु सिर उटाने लगे है ।
मानव की पशु-वृत्तियां गौरविान्वित हो रही है । समाज मे जो हिंसक हैं, दुष्ट है, वे ही प्रसन्न हैं,सुखी है ।
सेनानायक और सैनिक लुटेरे हो गए हैं ।
राजसी व्यवस्था की इस सड़ाध मे अपराध के सहस्रो कीटाणु रोज जन्म ले रहे हैं । राज – कर्मचारी, राजशी वेश उतारकर , स्वयं प्रजा को लूट लेते है , और फिर स्वयं ही न्याय करने के लिए, आसन पर बैठ जाते है ।
अथवा अपने भाई–भतीजों को चोरी,डकैती , हत्या एवं बलात्कार करने के लिए उन्मुक्त छोड़ , उनकी रक्षा के लिए स्वयं सैनिक पद लिये बैठे हैं । साधारण प्रजा कितनी दु:खी है ।नगरों तक मे खाद्य –सामग्री उपलब्ध नही है ।कही दुभिक्ष है , कही बाढ़ है।लोग कीड़े–मकोड़ों के समान भूखे मर रहे हैं,और सारा अन्न श्रेष्ठियो के भंडार-गृहो मे पड़ा है ।व्यापारी धन कमाकर शासन को उपहार दे-देकर अपने वश में कर लेता है ,परिणामतः शासन अत्याचार का समर्थन करने लगता है ।

और ये बेचारे शबर,निषाद,किरात,भील,दक्षिण मे वानर,ऋक्ष तथा अन्य जातियां ।उन्होने सोचा था कि आर्य संस्कृति उनका उद्धार करेगी ।क्या हुआ उनका ?
एक ओर राक्षसों ने आर्य संस्कृति उन तक पहुंचने ही नही दी;और अब आर्य संस्कृति के उद्घोषकर्ता स्वयं ही राक्षस होते जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में विश्वामित्र क्या करेंगे ? अगस्त्य क्या करेंगे ? वाल्मीकि क्या करेगे ? भरद्वाज क्या करेंगे ?
”पर कर्म का समय भी यही है ।विश्वामित्र चूक नहीं सकते।
कोई कुछ नहीं करेगा,तो विश्वामित्र को ही कुछ करना होगा ...
क्या करें विश्वामित्र ?किसके पास जाएं ?
दशरथ के पास?
जनक के पास ? दोनों के पास?
किसी के भी पास जाने का कोई लाभ नही ।
क्या आर्यावर्त रावण के विरुद्ध संगठित नहीं हो सकता ? क्या दशरथ और जनक में मंत्री नहीं हो सकती ? प्रश्न ! प्रश्न !! प्रश्न !!!

विश्वामित्र को कुछ करना ही होगा ।
उद्यम – शून्य हो यहाँ बैठे रहने का क्या लाभ ? क्या उन्होंने सिद्धार्थाश्रम राक्षसों के भक्षण के लिए आहार उपलब्ध कराने के लिए बनाया था ?
उनके अपने साथियों का उन पर से विश्वास उठता जा रहा है । क्या मुनि आजानुबाहु की उपालंभ देती हुई दृष्टि वे भुला सकते नहीं ! उन्हें सक्रिय होना होगा । राजा सक्रिय न हो , तो ऋषि ही सक्रिय क्यों न हों ?
ऋषि !  विश्वामित्रः ज़ोर से हंसे ...
एक ऋषि अयोध्या में बैठा है- वशिष्ठ ! एक जनकपुरी में बैठा है – शतानन्द !
वशिष्ठ !आर्य– शुद्धता का प्रतीक !आर्यत्व को सांप्रदायिक रूप देने का उपक्रम !जो आर्य संस्कृति के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा है।वशिष्ठ आर्यों को आर्येतर जातियों के संपर्क में नहीं आने देना चाहता ।इसलिए वह आर्य राजाओं को आर्यावर्त से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित नहीं करेगा। ब्रह्मतेज के गौरव पर जीने वाला वशिष्ठ इन राजाओं को कूप–मंडूक बनाकर छोड़ेगा ।और शतानन्द ! निरीह शतानन्द ! एक तो अनासक्त सीरध्वज की छत्रछाया में रहने वाला , आध्यात्मिक चिंतन करने वाला ऋषि , जिसे राजनीति से कुछ नही लेना ; और ऊपर से अपने पिता के पार्थक्य से पीड़ित । ।

"विश्वामित्र की आंखें चमक उठीं । आकृति पर एक दृढ़ता आ विराजी ,सारे शरीर की मांसपेशियां जैसे कुछ कर गुजरने को उद्यत हो गयीं ।मन और शरीर की शिथिलता बहुत दिनों के पश्चात् मिटी थी ।
"यह विश्वामित्र का संकल्प था"
विश्वामित्र अपने संकल्प के बल पर जन्मत : क्षत्रिय होते हुए भी ,यदि हठी वशिष्ठ से ब्रह्मर्षि की प्रतिष्ठा पा सकते हैं , तो आर्यवत के समस्त राजाओ एवं रावण का रणभूमि में मानमर्दन करना विश्वामित्र के लिए कौनसी बड़ी बात है ??
राजाओं को शत्रु राक्षसों के विरुद्ध खड़ा कर देना भी क्या बड़ी बात है ! …
कुटिया में उनकी गंभीर आवाज गूंजी ” द्वार पर तुम हो , पुत्र पुनर्वसु ! ” ”
हां , गुरुदेव ! ” पुनर्वसु भीतर आ गया ।


”वत्स ! कल प्रातः मैं अयोध्या की यात्रा करूंगा । उचित व्यवस्था कर दी जाए । मेरी अनुपस्थिति में आश्रम की व्यवस्था आचार्य विश्वबंधु देखेंगे ।
_________________________________________

इन ग्रन्थो की सहायता से यह लेख लिखा गया -

1- वाल्मीकि रामायण 2- नरेंद्र कोहली अभ्युदय 3 - वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास 

मैंने सम्पूर्ण रामायण इंटरनेट पर उपलब्ध कराने के लिए यह रामायण यात्रा शुरू की है, शेयर कीजिए व जुड़े रहिए।
धन्यवाद

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